Friday 8 June, 2007

रिक्शेवाला

"चलोगे भईया...?"
"हां जी, चलेंगे...बताईये, कहां चलना है?" "कृष्णा अपरा, शॉप्रिक्स मॉल के पीछे ही है...सेक्टर 61।"
"कृष्णा मॉल...हां, हां..चलेंगे।"
"अरे कृष्णा मॉल नहीं भईया...कृष्णा अपरा अपार्टमेंट्स जाना है...सेक्टर 61।"
"अरे हां हां...जानते हैं, जानते हैं...चलिए..."
"अच्छा कितने पैसे लोगे..?"
"आप ही बता दीजिए मैडमजी...क्या देंगी..."

"देखिए भईया...हमें तो खुद नहीं पता...पास ही है यहां से...बीस ले लीजिएगा..."
"चलिए बीस में पांच और दे दीजिए...बीस तो कम है.."
"नहीं भईया...हमें अंदाज़ा नहीं है जगह का...पर यहां से पास ही है। बीस बिलकुल सही है। क्यों ठीक है ना पूर्वा...?"
"हां हां भईया...चलिए...दस मिनट का तो रास्ता है।"
"चलिए हमें भी पता नहीं है...पर अब आप कहती हैं तो बीस में ही ले चलेंगे..."

भीड़ भरी सड़क में रिक्शे वाला अपने लिए भी जगह बनाता हुआ चलने लगता है। धुएं से भरी सड़क...सरकारी बसें...खचाखच भरी हुईं प्राइवेट बसें.....स्कूटर, साइकिल,ट्रक...कारें...गाय, सांड़, कुत्ते, भिखारी...खोमचे वाले...और फिर कारें...कारें...और कारें...

"अरे भईया...ये किधर ले जा रहे हो आप...शायद इधर से नहीं है रास्ता..."
"मैडमजी, कृष्णा मॉल जाना है ना आपको...?"
"हे भगवान भईया ! आपको बताया ना...कृष्णा अपरा, सेक्टर 61, नोएडा।"
"नोएडा...? तो पहले बताना था ना...ये तो हम उल्टा ले आए..." रिक्शेवाला अपनी खटारा रिक्शा मोड़ने लगता है।

"नोएडा तो उस तरफ है...चलिए कोई बात नहीं...अभी लिए चलते हैं। पर मैडमजी बहुत दूर है यहां से...पच्चीस में तो नहीं होगा।"
"अरे भईया....आप चलिए तो...रास्ता तो आपको मालूम नहीं है...पैसे को लेकर किचकिच करने में लगे हो..."
"अरे कैसे नहीं मालूम मैडमजी...ये देखिए...ये सड़क पकड़ लिए तो सीधे अलीगढ़... और वो देख रहे हैं...वो सामने लाल बत्ती पार करके दाएं उतरे तो वो आ जाएगा नोएडा...खूब जानते हैं हम...."
"हे भगवान, ये कहीं अलीगढ़ ही ना पहुंचा दे....," सुमेधा धीरे से चुटकी लेती है।

रिक्शेवाला चलता जा रहा है...कमज़ोर बदन पर गंदा सा कुर्ता औऱ फटी लुंगी...बालों को तो मानो अर्सा हुआ साबुन, कैंची औऱ कंघी के दर्शन हुए। बुढ़ों के रिक्शों पर चढ़ना भी एक मुसीबत है...एक तो एक इंसान का दूसरे इंसान को खींचना ही अपने आप में इंसानियत से परे की बात लगती है...हां बस शायद लगती ही है। पर एक बूढ़े के रिक्शे पर चढ़ने से आप कतराते हैं। आत्मा कचोटती है...एक बूढ़ा खींचेगा दो जवान जहान लोगों को...फिर लगता है चलो बेचारे की दो पैसे की कमाई ही हो जाएगी। पर अजीब से कशमकश से घिर जाता है दिल....

"पूर्वा...टाईम पास करूं क्या ? बड़ा मज़ा आएगा...बस अभी देखते रहना..." सुमेधा ने पूर्वा को हल्के से आंख मारी है...दोनों के चेहरों पर शरारती मुस्कान खिल गई है।

"कहां के हो भईया आप...?"
"बिहार के हैं मैडमजी।"
"अच्छा, बिहार में कहां ?"
"अरे आप क्या जानिएगा मैडमजी..." रिक्शेवाला ऐसे कहता है मानो रिक्शे पर बैठी दोनों लड़कियों का बिहार के शहरों के बारे में पता होना कितने हैरत की बात हो....

"अरे आप बताईये तो, हम सब जानते हैं।"
"हम बेगूसराय के हैं मैडमजी।"
"अच्छा...हम भी बिहार के ही हैं।" सुमेधा ने पूर्वा को हल्की सी कुहनी मारी है।
"अच्छा...कौन जील्ला के मैडमजी..."
"बोल भागलपुर...," पूर्वा हल्के से सूझाती है। "पटना बोलूं क्या ?"
"अरे भागलपुर बोल ना...," पूर्वा फिर दोहराती है।
"कौन जील्ला मैडमजी...?" रिक्शेवाला फिर से पूछ रहा है।

"भागलपुर...भागलपुर के हैं हम...सुना है आपने...?"
"अरे बेगूसराय के हम...सब जानते हैं। हमरी उमर बताईये कितनी होगी....?"
रिक्शेवाले के चेहरे पर गर्व के भाव हैं। मानो जिंदगी के कितने ही बड़े बड़े कारनामों को अंजाम दे दिया हो।

"ये लो....हमें क्या लेना तेरी उमर से...यार ये तो कुछ ज्यादा ही फ्रेंडली हो रहा है।"
सुमेधा पूर्वा के कान में फुसफुसाती है। "चल कम ही बताना ठीक रहेगा...खुश हो जाएगा बुढ्ढा...
"भईया...होगी यही कोई 40-42...," रिक्शे पर पीछे बैठे, दोनों के चेहरों पर फर वही शराररती मुस्कान खेल रही है।
"तिरसठ के हो गए हैं हम...," अबकी बार वो पलटकर दोनों को देखता है...चेहरे पर
फिर वही गर्व का भाव... "बीस साल हो गए दिल्ली में..."
"अच्छा...और आपका परिवार ?"
"सब बेगूसराय में है।"

"अच्छा भईया, कितने बच्चे हैं आपके ?" अब पूर्वा की भी दिलचस्पी बढ़ने लगी है।
"हमरे आठ बच्चे हैं मैडमजी....", रिक्शेवाला बोलता जा रहा है।
"आठ बच्चे! हे भगवान... कहीं मुसलमान तो नहीं?" सुमेधा पूर्वा की ओर मुंह करती है।
"चार लड़कियां हैं,दो की शादी कर दी है। एक लड़का मैट्रिक में है...." चेहरे पर फिर वही गर्व का भाव है। छाती फूली हुई है, कुछ थकावट से तो कुछ गर्व से...

"अच्छा..." दोनों की दिलचस्पी धीरे धीरे घटने लगी है...और कितनी दूर है ये शॉप्रिक्स मॉल...कितनी देर हो गई है रिक्शे पर बैठे बैठे...

"भईया, आप किसी से पूछ लीजिए रास्ता..."
"हां मैडमजी, बस अगली लाल बत्ती पर पूछते हैं। वहां से नोएडा शुरु हो जाएगा।"
"तो भईया, कितनी देर बाद घर जाते हो आप ?
"बेगूसराय...? छह महीने साल में चले ही जाते हैं...रिक्शे पर ही जाते हैं।"
"क्या...?" दोनों को मानो सुनने में कोई गल्ती हुई है। "क्या कहा भईया आपने ?"
"हां, रिक्शे पर ही निकल जाते हैं। बस थाने से मोहर लगवाना पड़ता है।"
"हे भगवान, भईया...दिल्ली से बिहार...रिक्शे पर...!"
"हां मैडमजी, बस छह रोज़ तो लगते हैं। रोज दो सौ किलीमीटर रिक्सा टान लेते हैं।"
दोनों को अभी तक यकीन नहीं हो रहा...ये कमज़ोर सा रिक्शे वाला...रिक्शे पर बिहार...बाप रे...

"आपको रास्ता मालूम है ?"
"हां ना...नक्सा है हमरे पास...दिल्ली से गाज़ियबाद, लखनऊ होते हुए आरा.....बस पहुंच गए घर..."
"अच्छा, फिर वापस भी रिक्शे पर आते हैं...?"
"नहीं, नहीं...वापिस तो ट्रेन पर आते हैं। रिक्सा वहीं किराए पर दे देते हैं। छह बार जा चुके हैं हम रिक्सा पर घर..."वो जेब से मैली कुचैली सी डायरी निकाल रहा है...पन्ना पन्ना जैसे लग हो रहा है डायरी का...

"ये देखिए, हमारा नाम पता सब लिखा है डायरी में..."
पहले ही पन्ने पर साफ सुथरी लिखावट में लिखा है...मौहम्मद वकील, गांव फ्लां फ्लां, बेगूसराय।

"देखा ना, मुसलमान ही है, आठ बच्चे हैं। हे भगवान...," पूर्वा सुमेधा के कान में फुसफुसाती है।
"भईया, आप रास्ता एक बार फिर पूछ लीजिए...आधा घंटा हो गया रिक्शे पर बैठे। हमें पता होता कि इतनी दूर है तो ऑटो ही कर लेते...आपको भी परेशान कर दिया।"
"नहीं, नहीं मैडमजी...परेशानी की कौनो बात नहीं है।" वो किसी दूसरे रिक्शे वाले से रास्ता पूछ रहा है। आगे चौराहे से दाएं हाथ और फिर सीधा...ठीक है...आधे घंटे से रिक्शे पर बैठे बैठे थकावट हो गई है।

"तो गांव में बच्चे भी रिक्शा चलाते हैं क्या ?"
"नहीं, नहीं...," वो आंखें तरेरता हुआ पीछे देखता है।
"आप भी क्या बात करती हैं, मैडमजी। छोटा बेटा मेट्रिक में है और बड़ा बेटा कारी की पढ़ाई कर रहा है...वो जो मस्जिद में लिखा पढ़ी करते हैं ना...बस दो साल की पढ़ाई और है।"
"हां...फिर तो जैसे डीसी लग जाएगा...।" एक बार फिर सुमेधा ने चुटली ली है।
"बहुत लायक है लड़का पढ़ने में...", रिक्शेवाला बोलता जा रहा है।
"अच्छा...तो वो भी दिल्ली आता रहता होगा....उसके लिए तो उच्छा है, पढ़ाई के बाद यहीं काम मिल जाएगा...."
"नहीं...वो कभी नहीं आया दिल्ली।" बात खत्म। रिक्शे में चुप्पी छा गई है। नोएडा शुरु हो गया है। पर सेक्टर 61 अभी काफी आगे है। हे भगवान...कहां फंस गए...वो दोनों तो बस परफेक्ट मॉल घूमने आए थे। फिर सोचा कि चलो अनुराधा के घर भी घूम आया जाए। पता होता कि सेक्टर 61 इतनी दूर है तो आराम से ऑटो में ही चले जाते...
"अच्छा, तो भईया...यहां कहां रहते हो आप ?"
"कहीं नहीं...यहीं सड़क पर..."
"सड़क पर मतलब ?"
"दिन भर रिक्सा टानते हैं। एक रिस्तेदार का दुकान है, वहीं सो जाते हैं रात में।"
"पर फिर भी, कोई घर या कमरा नहीं है क्या ?"
"कौनो ज़रूरत है मैडमजी ? रात में सोने का तो होईये जाता है।"
"पर फिर भी चिट्ठी पत्री कहां आती है आपकी ?"

रिक्शेवाला हंसता है...." क्या चिट्ठी पत्री मैडमजी...बीस साल से कोई पता नहीं दिया कभी...और दूंगा भी नहीं। कोई आएगा भी नहीं।"
"हे भगवान, पर क्यों ? अकेले रहते हैं...कभी बिमार पड़ गए या फिर कोई ज़रूरत पड़ गई तो परिवार वालों के पास पता तो होना ही चाहिए....।"
सुमेधा ने कहने को तो ये कह दिया, लेकिन उसके मन में तो कुछ और ही चल रहा था। हे भगवान, बुड्ढा सड़क पर रहता है चौबीस घंटे...भगवान ना करे कभी एक्सिडेंट हो गया, या फिर ठंड लग गई या फिर लू लग गई, तो कौन पूछेगा। मर-मरा गया तो कॉरपोरेशन वाले लावारिस लाश समझकर जला देंगे। परिवार को पता भी नहीं चलेगा।

"पर भईया, ये तो कोई बात नहीं हुई...पता तो होना चाहिए ना परिवार के साथ। कभी आकर मिल तो सकते है ना आपसे...।"
"आकर क्या देखेंगे...कि बाप रिक्सा चलाता है ? मैडमजी, गांव में बताया नहीं है किसी को कि हम शहर में रिक्सा चलाते हैं। छोटा बेटा मेट्रिक में है, बड़ा बेटा कारी बनेगा। कैसा लगेगा...क्या बोलेंगे...कि हमारा बाप रिक्सा चलाता है।"

रिक्शे पर बैठे बैठे दोनों चुप हैं। कुछ सूझ ही नहीं रहा कि क्या कहें।

"अच्छा तो फिर घर पर क्या कहा है?"
"घर पर बोले हैं कि छोटा मोटा काम कर लेते हैं। और नहीं तो सब्जी मंडी में एक दुकान पर काम कर लेते हैं।"

सवालों और दिलचस्पी का सिलसिला फिर चल निकला है।

"अच्छा, फिर जब आप रिक्शे पर घर जाते हैं, तो घरवाले पूछते नहीं कि रिक्शा कहां से आया...?"
"अरे नहीं मैडमजी, कह देते हैं कि आ रहे थे...पैसा था, तो कीन के लेते आए..."

दोनों को अब शर्मिंदगी सी महसूस होने लगी है। वो तो रिक्शे पर बैठे बैठे ही थक गईं थीं...उन्हें खींचने वाले का क्या हाल हो रहा होगा। अब लग रहा था कि कार कि खिड़की से सबकुछ कितना आसान लगता है। ज़िंदगी कितनी सफाई से नज़रों के सामने से गुजरती
दिखती थी। एयरकंडिशन्ड कार के अंदर बैठे बैठे कितना आसान था ज़िंदगी को हल्के तौर पर लेना।

"पर भईया...आप ऐसा क्यों सोचते हैं। रिक्शा चलाते हैं....काम ही करते हैं ना। भीख तो नहीं मानते, किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाते...चोरी तो नहीं करते... काम कि तो इज़्जत है ना। मेहनत करके कमाते खाते हैं।"

सुमेधा मानो शब्दों के सहारे उसे विश्वास दिलाना चाह रही थी कि वो अभी भी कई लोगों से काफी बेहतर है। इतने सालों से अंदर ही अंदर कचोट रही रिक्शे वाले की अपने काम के प्रति शर्मिंदगी को वो अपने शब्दों से धोने की कोशिश कर रही थी। आज तक ना जाने कितने रिक्शे वालों को दुत्कारा था उसने। बुरी तरह डांटा था, कम पैसे दिए थे और खूब खरी खोटी सुनाई थी....

"मेहनत की तो बात ठीक है मैडमजी...पर आप नहीं समझेंगे...चलाते तो रिक्सा ही हैं ना..."
बातों का सिलसिला फिर चल पड़ा है। अब कृष्णा अपरा की कोई सुध नहीं थी...

"अच्छा भईया, आप दिल्ली से पहले कहां थे?"
"दुर्गापुर में थे मैडमजी। बेकरी थी हमरा छोटा सा...पैराडाईज़..."
"क्या था ?"
"पैराडाईज़ नाम था बेकरी का..."
"अच्छा बेकरी...। तो फिर दिल्ली क्यों आ गए... बेकरी तो खूब चलती है। ब्रेड बेचते...बिस्कुट बेचते...," पूर्वा माहौल हल्का करने के लिए कहती है।
"वो जोती बसू का सरकार आ गया था ना...यूनियन लग गया था। बोला कि मजदूर को इतना पैसा दो...कहां से देते...बंद कर दीए। हमरे साथ पंद्रह लोग और थे। सब दिल्ली आ गए।"

दुनिया के कितने सच देखे हैं आज...पहले रिक्शेवालों का सच, अब ये कम्यूनिज़म, गरीबी हटाओ...कितने झूठे हैं नारे...इस रिक्शेवाले जैसे ना जाने कितने ही छोटे मोटे काम धंधे वाले हैं...जो अपनी रोजी रोटी बदलने को मजबूर होते हैं रोज़ दर रोज़...ना जाने इस रिक्शेवाले जैसे कितने अपना घर बार छोड़ सड़कों पर धक्के खाने को मजबूर हो गए होंगे। जो दिन भर काम करते होंगे और रात को फुटपाथ पर सोते होंगे। जिनके बीवी बच्चे...सारा परिवार दूर किसी गांव में रहते होंगे। ऐसा परिवार जिनको उन्होंने अपना पता तक नहीं दिया होगा। कृष्णा अपरा आ गया था....

"बस भईया, आ गया...वो सामने ही है बिल्डिंग...वो देखिए लिखा है बोर्ड पर..."
"हां, चलिए मैडमजी, पहुंच ही गए बात बात में..."
सुमेधा का दिल भारी सा हो रहा है। "भईया, कभी लगता नहीं कि परिवार को कहां अकेला छोड़ दिया है ?"
"मैडमजी, अकेले तो हम हैं। अन्जान से शहर में। कोई भी तो अपना नहीं यहां। वो लोग अकेले कहां ? गांव में तो सब हैं, पूरा परिवार है। बीवी के साथ बच्चे हैं। अल्ला का करम है। उसका दिया सब कुछ है। भरा पूरा घर है....कौनो चीज़ की कमी नहीं...टीवी, पंखा, लाइट...अनाज....थोड़ी बहुत खेती का काम भी है। छोटा बेटा मेट्रिक में है। दो बेटियों की शादी कर दी है। बाकि दोनों के नाम पर थोड़ा पैसा जोड़ा हुआ है। और बड़ा बेटा तो कारी बन ही जाएगा।"

"चलिए, फिर वो कमाएगा और आप आराम करिएगा...", पूर्वा उतरते हुए कहती है
"हां, फिर आप भी गांव चले जाइयेगा....", जाने अब क्यूं दोनों का उतरने का मन नहीं कर रहा है। सुमेधा ने रिक्शेवाले को पैसे पकड़ाए हैं....
"देखिए मैडमजी, आगे का होता है। अल्ला का करम रहा तो थोड़ा आराम हम भी कर लेंगे...बहुत रिक्सा खींचे हैं।" कहता हुआ वो नई सवारी की तलाश में आगे बढ़ जाता है।

6 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

बहुत अच्छी कहानी। एक रिक्शे वाले के दर्द को अच्छे ढंग से महसूस किया है आपने। कहानी दिल को छूती। संवेदनाएं गहरी हैं। keep it up. मैंने आपके ब्लॉग को अपने ब्लॉग से लिंक कर दिया है।

Unknown said...

Good story but comment about communism is not correct. The reason for the lost of business of rickshaw puller is not digestable. There should be detail description about it, otherwise it should have been lost. This description show lack of knowledge of functioning of left government in West Bengal. otherwise story is good.

sushant jha said...

A story with human element...a style to arrest your imagination...a flow to let you compel to read till end..or even to demand more..The psycological condition of the rikshaw puller and that of rest two character..is best portrayed and at the same time try to reveal the almrming condition of poverty in the hindi heartland in particular and in the rest of india in general.One can only write such natural conversation when either one has the complete experiecne of the particular geographical area...or one has wholeheartedly lived up the 'character'...Really a nice peice..of work...must be sent to 'Hans', 'Kathadesh' or 'Vagartha'....congrats..

Sushant

Anil Dubey said...

क्या बात है रागिनी!शाबाश.क्या लिख मारा.चपे रहो.एक झलक है दिल की गहराईयों तक जाकर तुने संवेदना को छुआ है.

Anonymous said...

bahut hi achhi story hai.Aisi story to pathya pustakon mein di jaani chahiye.


-Arindum Mukhopadhyay.

Arvind Passey said...

A story that stays with you.

Arvind Passey
www.passey.info