Thursday 5 June, 2008

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे

अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा ख़त्म हुआ या टूट गया
फिर से बांध के
और सिरे को जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई

मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे!

- गुलज़ार

Wednesday 4 June, 2008

मानी

चौक से चलकर, मंडी से, बाज़ार से होकर
लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती
बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती
शहर की आवारा गलियों में सहमी-सहमी सी पूछ रही है
हर कश्ती का साहिल होता है तो -
मेरा भी क्या साहिल होगा ?

एक मासूम से बच्चे ने
बेमानी को मानी देकर
रद्दी के कागज़ पर कैसा ज़ुल्म ढाया किया है।

- गुलज़ार