Tuesday 22 July, 2008

चांद की बात

खिड़की से झांकता चांद,
अकड़ता सा, जबरन झांकता चांद,
अंधेरे कमरे में घुसपैठ कर
फिर अधिकार जताता चांद
पलंग के किनारे से होकर
आहिस्ता आहिस्ता
बिस्तर पर चढ़ बैठा है
हथेलियों के झीने झरोखों से होकर
जाने किस घंमड में चूर
अब चेहरे पे छाया है
खुद से रौशन कमरे पर मान करता हुआ।
पर ये दिल जब रौशन हो,
तब तो कुछ बात बने।

और फिर लवध्रुव ने जोड़ा :

ये दिल जब रौशन हो,
तब कुछ बात बने,
खुले दरिचों से जब आए सदा,
तब कुछ बात बने
चिलमन से झांकती आंखों में
जब हो पहचान
तो कुछ बात बने,
बारिश की बूंदे जब मुस्कुराए
तो कुछ बात बने।