Tuesday 22 July, 2008

चांद की बात

खिड़की से झांकता चांद,
अकड़ता सा, जबरन झांकता चांद,
अंधेरे कमरे में घुसपैठ कर
फिर अधिकार जताता चांद
पलंग के किनारे से होकर
आहिस्ता आहिस्ता
बिस्तर पर चढ़ बैठा है
हथेलियों के झीने झरोखों से होकर
जाने किस घंमड में चूर
अब चेहरे पे छाया है
खुद से रौशन कमरे पर मान करता हुआ।
पर ये दिल जब रौशन हो,
तब तो कुछ बात बने।

और फिर लवध्रुव ने जोड़ा :

ये दिल जब रौशन हो,
तब कुछ बात बने,
खुले दरिचों से जब आए सदा,
तब कुछ बात बने
चिलमन से झांकती आंखों में
जब हो पहचान
तो कुछ बात बने,
बारिश की बूंदे जब मुस्कुराए
तो कुछ बात बने।

Thursday 5 June, 2008

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे

अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा ख़त्म हुआ या टूट गया
फिर से बांध के
और सिरे को जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई

मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे!

- गुलज़ार

Wednesday 4 June, 2008

मानी

चौक से चलकर, मंडी से, बाज़ार से होकर
लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती
बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती
शहर की आवारा गलियों में सहमी-सहमी सी पूछ रही है
हर कश्ती का साहिल होता है तो -
मेरा भी क्या साहिल होगा ?

एक मासूम से बच्चे ने
बेमानी को मानी देकर
रद्दी के कागज़ पर कैसा ज़ुल्म ढाया किया है।

- गुलज़ार

Sunday 1 July, 2007

सब पीछे छूट गया

अब सब पीछे छूट गया,
मम्मी की डांट,
तो पापा का प्यार,
अधूरी कॉपियों के फटे पन्ने
स्कूल की शर्ट पर
स्याही की बौछार।

गर्मियों की छुट्टियों में
स्पाइडरमौन से प्यार
ढेर सारा होमवर्क और
कच्चे आम का स्वाद,
कभी नई ड्रेस तो
कभी छड़ी की मार।

दोस्तों से झगड़े,
फिर मान मनोहार,
इंग्लिश में फर्स्ट
पर मैथ्स में हार।
हां, सब पीछे छूट गया,
प्यार भरी पर्चियां
और आई लव यू कार्ड।

खट्टी मीठी गोलियां, इमली, आचार
मिलजुल कर पिकनिक पर जाना,
साथ दीवाली, दशहरा मनाना,
होली पर जमकर हुड़दंग मचाना,
सच...जाना पहचाना तो अब
सब पीछे छूट गया।

Monday 25 June, 2007

मामाजी

करीब छह बज रहे हैं। पूरा घर सुबह की पहली अंगड़ाई ले रहा है। सुमेधा के कानों में हल्की हल्की आवाज़ें छन कर आ रही हैं। कभी बाथरूम की हल्की फुल्की उथल पुथल, तो कभी रसोई में बर्तनों के खड़कने की आवाज़ें...इसका मतलब मामीजी जाग गई हैं। लॉबी से किसी के चलने की आवाज़ें आ रही हैं। भारी चप्पलें मार्बल के फर्श पर आवाज़ करती हुईं....मामाजी हैं....मामाजी तो काफी पहले ही उठ गए होंगे।

सुमेधा ने हल्के से चादर से सिर बाहर निकाला है। बेडरूम के दरवाजे से उसकी नज़र मामाजी पर पड़ी है। सफेद रंग का धुला हुआ कुर्ता पायजामा पहनकर तैयार मामाजी...बाल करीने से संवरे हुए...कितनी एनर्जी है इनमें...नहा भी लिया...! कितने बज़े उठे होंगे...सुमेधा अलसाई हुई करवट बदलने की कोशिश करती है। पर फिर झिझक के कारण कुछ देर और बिस्तर पर पड़े रहने का इरादा छोड़ना पड़ता है। अपना घर और अपना बेडरूम होता तो फिर तो आठ बजे तक सोई रहती...कोई नहीं टोकता..पर ये तो मामाजी का घर है। इसलिए थोड़ा लिहाज तो करना पड़ेगा। सुमेधा पिछली रात ही आई है यहां...अपनी मम्मी के साथ। आज राखी जो है। मम्मी मामाजी को राखी बांधेगीं, फिर सभी सत्संग सुनने स्वामीजी के आश्रम जाएंगे। सुमेधा के घर में सभी बड़े भक्त हैं स्वामीजी के। बहुत भक्ति भाव है सब में। और मामाजी और मामीजी में तो कुछ ज्यादा ही भक्ति भाव भरा है।

मामाजी कहते हैं कि उन पर स्वामीजी कि बहुत कृपा है। सब कुछ उनका दिया हुआ ही तो है। आलीशान बंगला, दो दो लंबी कारें, फैक्ट्री, शानदार ऑफिस, नौकर चाकर....बेटी की शादी हो चुकी है, और बेटा विदेश में है। किसी तरह कि कोई कमी नहीं...सच में बड़ी कृपा है स्वामीजी की।

अब मामाजी में भी तो भक्ति भाव बहुत है, कृपा तो होगी ही। स्वामीजी का आश्रम वैसे तो राजस्थान में है, पर आए दिन दिल्ली आते रहते हैं। विदेशों के दौरे पर भी जाते हैं तो दिल्ली से होकर ही जाते हैं। और उनके दिल्ली आने पर मामाजी उनके साथ ही रहते हैं, साए की तरह। बहरहाल सुमेधा बिस्तर से उठ बैठी है। लॉबी में बैठे अखबार पढ़ रहे मामाजी की नज़र उस पर पड़ गई है।

"गुड मार्निंग बेटा," वो वहीं से बोल रहे हैं।
"गुड मार्निंग मामाजी," कहती हुई सुमेधा लॉबी की तरफ बढ़ने लगी है।

"और गर्मी तो नहीं लगी रात को? मैंने ए-सी बंद कर दिया था।"
"नहीं मामाजी, बल्कि सुबह को तो ठंड होने लगी थी। अच्छा किया ए-सी बंद कर दिया।"

"तो हां बेटाजी...पहले तो ये बताओ की नाश्ते में क्या लोगे? वैसे तुम्हारी मामी ने आलू उबाल लिए हैं। अब बताओ, सैंडविच खाओगे या फिर आलू के परांठे ? "

"मामाजी, दोनों चीज़े परफेक्ट हैं, जो सभी खाएंगे, मैं भी वही खाऊंगी," कहती हुई सुमेधा रसोई की ओर बढ़ने लगती है। मामाजी भी अखबार समेटते उसके पीछे आने लगते हैं।
रसोई में मामीजी चुपचाप काम में लगी हैं। वो ज़्यादा बोलती नहीं। बस काम की ही बात करती हैं। शंभु घर की सफाई कर रहा है। वो बीच बीच में उसे ठीक ढंग से काम करने की हिदायत देती हुईं आलू छीलने में लगी हैं।

मामाजी रसोई में आ मामीजी को नाश्ते में आलू के परांठे तैयार करने को कहते हुए खुद चाय बनाने की तैयारियों में जुट जाते हैं। अब तो सुमेधा की मम्मी भी तैयार होकर आ गई हैं। रसोईघर में खड़े खड़े सभी इधर उधर की बातें करने में मशगूल हो जाते हैं।

सुमेधा की इन बातों में को दिलचस्पी नहीं। वो टीवी ऑन करती है। कहीं कुछ खास नहीं आ रहा। खबरें भी कुछ खास नहीं। एक लोकल चैनल पर पुराने गाने आ रहे हैं। हल्की आवाज़ में वो चैनल लगा सुमेधा नहाने की तैयारियों में जुट जाती है।

बैग से ब्रश, कपड़े और तौलिया निकाल वो बाथरूम की ओर बढ़ रही है।

"बेटा, आपने चाय नहीं पीनी पहले ?" मामाजी पूछ रहे हैं।
"नहीं मामाजी, एक ही बार पीऊंगी...नाश्ते के साथ..."

"ठीक है, फिर आओ बता दूं बाथरूम में शैंपू वगैरह कहां रखा है। मामाजी उसके साथ बाथरूम में आएं हैं। ये गीज़र का प्लग, इस नल में गर्म पानी, इसमें ठंडा, यहां से शावर...सबकुछ समझा रहे हैं। अब मामाजी ने कपबोर्ड खोल दिया है...माइल्ड शैम्पू, क्लीनिक प्लस, साबुन, तेल, बॉडी ऑयल...सब समझा रहे हैं।

" अच्छा बेटा, और किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो आवाज़ दे देना," मामाजी कहते हुए वापस रसोई में चले गए हैं।

सुमेधा बाथरूम का दरवाजा बंद कर बैठी सोच रही है। कितने कैयरिंग हैं ना मामाजी। कितना ख्याल रखते हैं सब का....और घर की हर चीज का पता है उनको। उस पर से क्या पर्सनैलिटी है...हर दम एकदम फिट।

मन ही मन मामाजी की तारीफों के पुल बांधते बांधते सुमेधा का ध्यान अपने पापा की ओर चला गया है। बिलकुल मस्तमौला इंसान हैं उसके पापा। दिल के बिलकुल साफ, पर अपने दम पर तो वो घर को बिलकुल नहीं मैनेज कर सकते। अगर घर में वो अकेले हों और चार मेहमान आ जाएं, तो उन्हें तो कुछ सूझेगा ही नहीं...उन्हें तो हर चीज़ मम्मी से मांगने की आदत है...हां चाय शायद ज़रूर बना लेंगे। सुमेधा सोचते सोचते हंसने लगती है।

राखी की रस्म हो गई है। काफी देर से हंसी ठहाकों का सिलसिला चल रहा है। पूरी तरह से फील गुड फैक्टर वाला माहौल है। नाश्ता भी लगभग हो ही चुका है। गर्मागर्म आलू के परांठे, घर का बना सफेद मक्खन और दही। अब गर्मागर्म मसालेदार चाय की चुस्कियों के साथ ठहाकों का दौर चल रहा है। बचपन की बातें, लड़ाई झगड़े, बेवकूफियां...सब याद की जा रही हैं।

अब बस थोड़ी ही देर में स्वामीजी के आश्रम के लिए निकलना है। वहां से सत्संग के बाद सुमेधा मम्मी के साथ अपने घर चली जाएगी। शंभू ने गैरेज से कार निकाल दी है और अब उसे चमका रहा है। घर के सभी लोग तैयार हो निकलने की तैयारी कर रह हैं।

सत्संग के बाद मामाजी स्वामीजी के साथ रहेंगे और मामीजी फैक्ट्री चली जाएंगी, कुछ ज़रूरी काम निपटाने। सभी सत्संगघर के लिए निकल पड़े हैं। कार मामाजी ही ड्राइव कर रहे हैं। सुमेधा पीछे मम्मी के साथ बैठी है। मामीजी आगे हैं। सीडी प्लेयर पर स्वामीजी का सत्संग चल रहा है। सभी उसमें खोए हैं....

"मनुष्य अपने कर्मों से जाना जाता है। वो खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा। सारी माया यहीं रह जाएगी...इसलिए ऐ परमात्मा के बन्दे, पाप ना कर, कल किसने देखा है...मोहमाया त्याग दे।" सत्संग चल रहा है, सभ चुप हैं।

ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ी रुकी है। एक मैली कुचैली सी लड़की कार की ओर बढ़ रही है। बाल बुरी तरह उलझे हुए...छोटी सी फ्रॉक कई जगह से फटी हुई...हाथ में एक गंदा सा कपड़ा है जिसे वो कार पर फेरने लगी है।

"साले बहन..., सुबह सुबह जाते हैं।" मामाजी ज़ोर से बड़बड़ाने लगे हैं। लड़की उनके शीशे के बिलकुल पास आ गई है...हाथ फैलाए हुए...कुछ बोल भी रही है, पर कार के अंदर उसकी कमज़ोर आवाज़ सुनाई नहीं दे रही।

"साले हराम के पैदा करके छोड़ देते हैं सड़क पर....हमने क्या टक्साल लगाई हुई है...चल भाग यहां से...!" मामाजी बोलते जा रहे हैं...पर लड़की वहीं खड़ी हुई है....हाथ फैलाए...

सुमेधा का दिल कर रहा है उस बच्ची को कुछ देने का...पर मामाजी का गुस्सा देख हिम्मत नहीं हो रही। शरीर ही मानो जड़ हो गया है। ना मुंह से आवाज़ निकल रही है और ना शरीर हिल रहा है। अभी अगर पापा होते यहां तो मामाजी को ज़रूर टोकते और बेचारी सी बच्ची को ज़रूर कुछ देते। पर ज्यादा धक्का तो इस बात है कि मामाजी बोल रहे हैं ये सब..! उसके सोफिस्टिकेटेड मामाजी...!

सिग्नल अभी तक लाल ही है। अब तो लड़की हाथ फैलाए गिड़गिड़ा रही है। कार के शीशे से हाथ नहीं हटाया है अभी तक।

"सालों हरामज़ादों...! समझ नहीं आ रही क्या..." मामाजी ने कार का शीशा नीचे किया है।

"ओए तुझे समझ नहीं आ रही क्या...नहीं देना कुछ भी हमने...भाग जा...पता नहीं कहां से आ जाते हैं साले...कार का शीशा खराब करके रख दिया !" मामाजी ने लड़की को ज़ोर से धक्का दिया है। वो बीच सड़क पर गिरते गिरते संभल गई है और दूसरी कार की ओर बढ़ने लगी है।

सिग्नल हरा हो गया है। "बेवकूफ ने सारा शीशा खराब कर दिया...हाथ के निशान पड़ गए हैं...बेवकूफ लड़की..." मामाजी कार आगे बढ़ाते हुए गुस्से में बड़बड़ाते जा रहे हैं। मामीजी चुप हैं। शायद अपने पति की बातों को मौन सहमति दे रही हैं। मम्मी भी चुप हैं। पता नहीं उनके मन में क्या चल रहा है। सुमेधा भी चुप है। पर उसकी तो मानो ज़ुबान ही बेजुबान हो गई है। हर बात पर बढ़ चढ़कर बोलने वाली सुमेधा भी आज चुप है। सीडी प्लेयर पर स्वामीजी कहते जा रहे हैं,"बंदे, ये दुनिया तो बस एक छलावा है....तू ध्यान कर...इस मोहमाया की दुनिया से बाहर निकल....तू खाली हाथ आया है, खाली हाथ ही जाएगा..."

Monday 18 June, 2007

चल पड़ा सूरज

सिमटते से बादलों के पीछे,
टूटा टूटा सा वो सूरज
अपनी सुनहरी चादर समेटता,
रंग बदलती सुनहरी चादर,
लाल, संतरी, स्लेटी गुलाबी
लहराती चादर को
हौले हौले खींचता, समेटता बढ़ चला।

सिमटते से बादलों के पीछे
टटा टूटा सा वो सूरज,
झुके झुके से आसमां को लांघता,
तहरों की आगोश में समाने,
उनकी अथाह गहराई को पाटकर
फिर उस पार की दुनिया को जगाने
हौले हौले चल पड़ा।

Sunday 10 June, 2007

बड़े मियां दीवाने...

जब मैं होउंगा साठ साल का और तुम होगी पचपन की, बोलो प्रीत निभाओगी ना तब भी अपने बचपन की...ना जाने कितने ही पति पत्नी और प्यार की पींगे बढ़ाते प्रेमी जोड़े ये गाना गुनगुनाते हुए सुनसान पार्कों के चक्कर लगा चुके हैं...पर जनाब अब इस बात की कोई गारंटी नहीं कि जब आप साठ साल के होंगे तो आपकी हमसफर भी अपने पचपनवें बसंत को पार कर चुकी हैं...हो सकता है कि वो अपनी ज़िंदगी के तीसवें साल की दहलीज़ पर ही खड़ी हों...जी हां...वक्त बदल रहा है और इसके साथ ही बदल रहे हैं प्यार और रिश्तों के फॉर्मूले।

अब हाल की फिल्मों को ही देख लीजिए। फिल्म जॉगर्स पार्क में अधेड़ जज बने अभिनेता विक्टर बैनर्जी बिंदास मॉडल पेरिज़ाद ज़ोराबियन के प्रेम में पड़े दिखे...और तो और, बुढ़ापे में इश्क फरमाने का रोग हमारे बिग बी, यानि की अमिताभ बच्चन को भी लगा। जहां एक ओर फिल्म निशब्द में वो सोलह साल की जिया खान से प्यार के दांव पेंच सीखते नज़र आए वहीं दूसरी ओर फिल्म चीनी कम में उन्हें अपने से कहीं छोटी तब्बू के इश्क में गिरफ्तार होने का मौका मिला।

ऐसा नहीं है कि इन फिल्मों को लेकर हमारे यहां सवाल नहीं उठे..बिलकुल उठे...पर आमतौर पर इन फिल्मों के प्रति लोगों का रवैया काफी हल्का फुल्का ही रहा। बल्कि एक अलग थीम पर फिल्म बनाने के लिए इन फिल्म के निर्माताओं की तारीफ ही हुई। कहा गया कि आखिर फिल्में भी तो समाज का ही आईना है।

जी हां, रील रोमांस से परे अगर रियल रोमांस की बात करें तो यहां भी ऐसे जोड़े मिल जाएंगे जो प्यार में उम्र के तय पैमानों से बाहर निकल अपने ही नए पैमाने गढ़ रहे हैं। अब अपने प्रोफेसर मटुकनाथ को ही लीजिए। ज़माने भर की लाख ठोकरें मिलीं, पत्नी ने सरेआम इज़्जत तार तार करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, पर ये महाशय तो अपनी खूबसूरत शिष्या जूली के प्यार में कुछ ऐसे खोए कि दीन दुनिया के तानों की कुछ सुध ही ना रही। भई इश्क हो तो ऐसा ! अब तो आलम ये है कि इश्क विश्क के मामले में जब भी कोई भागम भागी का केस सामने आता है तो टीवी वाले तुरंत उनको अपने स्टूडियो आने का न्यौता भेज डालते हैं....उनके एक्सपर्ट् कमेंट्स जानने के लिए।

यानि कि जनाब समाज के एक बड़े हिस्से ने भी मान लिया है कि अब प्यार इश्क और मौहब्बत में मैं सोलह बरस की और तू सतरह बरस का वाला फॉर्मूला पुराना हो चुका। तो मॉरल ऑफ दी स्टोरी साफ है जनाब...अब तो उम्र का को दौर हो, प्यार हो गया हो तो बिंदास बोल डालिए...फिर चाहे आपकी उम्र सतरह की हो या सतत्तर की, प्यार के मामले में उम्र का कोई कॉपीराइट नहीं !