Sunday 1 July, 2007

सब पीछे छूट गया

अब सब पीछे छूट गया,
मम्मी की डांट,
तो पापा का प्यार,
अधूरी कॉपियों के फटे पन्ने
स्कूल की शर्ट पर
स्याही की बौछार।

गर्मियों की छुट्टियों में
स्पाइडरमौन से प्यार
ढेर सारा होमवर्क और
कच्चे आम का स्वाद,
कभी नई ड्रेस तो
कभी छड़ी की मार।

दोस्तों से झगड़े,
फिर मान मनोहार,
इंग्लिश में फर्स्ट
पर मैथ्स में हार।
हां, सब पीछे छूट गया,
प्यार भरी पर्चियां
और आई लव यू कार्ड।

खट्टी मीठी गोलियां, इमली, आचार
मिलजुल कर पिकनिक पर जाना,
साथ दीवाली, दशहरा मनाना,
होली पर जमकर हुड़दंग मचाना,
सच...जाना पहचाना तो अब
सब पीछे छूट गया।

Monday 25 June, 2007

मामाजी

करीब छह बज रहे हैं। पूरा घर सुबह की पहली अंगड़ाई ले रहा है। सुमेधा के कानों में हल्की हल्की आवाज़ें छन कर आ रही हैं। कभी बाथरूम की हल्की फुल्की उथल पुथल, तो कभी रसोई में बर्तनों के खड़कने की आवाज़ें...इसका मतलब मामीजी जाग गई हैं। लॉबी से किसी के चलने की आवाज़ें आ रही हैं। भारी चप्पलें मार्बल के फर्श पर आवाज़ करती हुईं....मामाजी हैं....मामाजी तो काफी पहले ही उठ गए होंगे।

सुमेधा ने हल्के से चादर से सिर बाहर निकाला है। बेडरूम के दरवाजे से उसकी नज़र मामाजी पर पड़ी है। सफेद रंग का धुला हुआ कुर्ता पायजामा पहनकर तैयार मामाजी...बाल करीने से संवरे हुए...कितनी एनर्जी है इनमें...नहा भी लिया...! कितने बज़े उठे होंगे...सुमेधा अलसाई हुई करवट बदलने की कोशिश करती है। पर फिर झिझक के कारण कुछ देर और बिस्तर पर पड़े रहने का इरादा छोड़ना पड़ता है। अपना घर और अपना बेडरूम होता तो फिर तो आठ बजे तक सोई रहती...कोई नहीं टोकता..पर ये तो मामाजी का घर है। इसलिए थोड़ा लिहाज तो करना पड़ेगा। सुमेधा पिछली रात ही आई है यहां...अपनी मम्मी के साथ। आज राखी जो है। मम्मी मामाजी को राखी बांधेगीं, फिर सभी सत्संग सुनने स्वामीजी के आश्रम जाएंगे। सुमेधा के घर में सभी बड़े भक्त हैं स्वामीजी के। बहुत भक्ति भाव है सब में। और मामाजी और मामीजी में तो कुछ ज्यादा ही भक्ति भाव भरा है।

मामाजी कहते हैं कि उन पर स्वामीजी कि बहुत कृपा है। सब कुछ उनका दिया हुआ ही तो है। आलीशान बंगला, दो दो लंबी कारें, फैक्ट्री, शानदार ऑफिस, नौकर चाकर....बेटी की शादी हो चुकी है, और बेटा विदेश में है। किसी तरह कि कोई कमी नहीं...सच में बड़ी कृपा है स्वामीजी की।

अब मामाजी में भी तो भक्ति भाव बहुत है, कृपा तो होगी ही। स्वामीजी का आश्रम वैसे तो राजस्थान में है, पर आए दिन दिल्ली आते रहते हैं। विदेशों के दौरे पर भी जाते हैं तो दिल्ली से होकर ही जाते हैं। और उनके दिल्ली आने पर मामाजी उनके साथ ही रहते हैं, साए की तरह। बहरहाल सुमेधा बिस्तर से उठ बैठी है। लॉबी में बैठे अखबार पढ़ रहे मामाजी की नज़र उस पर पड़ गई है।

"गुड मार्निंग बेटा," वो वहीं से बोल रहे हैं।
"गुड मार्निंग मामाजी," कहती हुई सुमेधा लॉबी की तरफ बढ़ने लगी है।

"और गर्मी तो नहीं लगी रात को? मैंने ए-सी बंद कर दिया था।"
"नहीं मामाजी, बल्कि सुबह को तो ठंड होने लगी थी। अच्छा किया ए-सी बंद कर दिया।"

"तो हां बेटाजी...पहले तो ये बताओ की नाश्ते में क्या लोगे? वैसे तुम्हारी मामी ने आलू उबाल लिए हैं। अब बताओ, सैंडविच खाओगे या फिर आलू के परांठे ? "

"मामाजी, दोनों चीज़े परफेक्ट हैं, जो सभी खाएंगे, मैं भी वही खाऊंगी," कहती हुई सुमेधा रसोई की ओर बढ़ने लगती है। मामाजी भी अखबार समेटते उसके पीछे आने लगते हैं।
रसोई में मामीजी चुपचाप काम में लगी हैं। वो ज़्यादा बोलती नहीं। बस काम की ही बात करती हैं। शंभु घर की सफाई कर रहा है। वो बीच बीच में उसे ठीक ढंग से काम करने की हिदायत देती हुईं आलू छीलने में लगी हैं।

मामाजी रसोई में आ मामीजी को नाश्ते में आलू के परांठे तैयार करने को कहते हुए खुद चाय बनाने की तैयारियों में जुट जाते हैं। अब तो सुमेधा की मम्मी भी तैयार होकर आ गई हैं। रसोईघर में खड़े खड़े सभी इधर उधर की बातें करने में मशगूल हो जाते हैं।

सुमेधा की इन बातों में को दिलचस्पी नहीं। वो टीवी ऑन करती है। कहीं कुछ खास नहीं आ रहा। खबरें भी कुछ खास नहीं। एक लोकल चैनल पर पुराने गाने आ रहे हैं। हल्की आवाज़ में वो चैनल लगा सुमेधा नहाने की तैयारियों में जुट जाती है।

बैग से ब्रश, कपड़े और तौलिया निकाल वो बाथरूम की ओर बढ़ रही है।

"बेटा, आपने चाय नहीं पीनी पहले ?" मामाजी पूछ रहे हैं।
"नहीं मामाजी, एक ही बार पीऊंगी...नाश्ते के साथ..."

"ठीक है, फिर आओ बता दूं बाथरूम में शैंपू वगैरह कहां रखा है। मामाजी उसके साथ बाथरूम में आएं हैं। ये गीज़र का प्लग, इस नल में गर्म पानी, इसमें ठंडा, यहां से शावर...सबकुछ समझा रहे हैं। अब मामाजी ने कपबोर्ड खोल दिया है...माइल्ड शैम्पू, क्लीनिक प्लस, साबुन, तेल, बॉडी ऑयल...सब समझा रहे हैं।

" अच्छा बेटा, और किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो आवाज़ दे देना," मामाजी कहते हुए वापस रसोई में चले गए हैं।

सुमेधा बाथरूम का दरवाजा बंद कर बैठी सोच रही है। कितने कैयरिंग हैं ना मामाजी। कितना ख्याल रखते हैं सब का....और घर की हर चीज का पता है उनको। उस पर से क्या पर्सनैलिटी है...हर दम एकदम फिट।

मन ही मन मामाजी की तारीफों के पुल बांधते बांधते सुमेधा का ध्यान अपने पापा की ओर चला गया है। बिलकुल मस्तमौला इंसान हैं उसके पापा। दिल के बिलकुल साफ, पर अपने दम पर तो वो घर को बिलकुल नहीं मैनेज कर सकते। अगर घर में वो अकेले हों और चार मेहमान आ जाएं, तो उन्हें तो कुछ सूझेगा ही नहीं...उन्हें तो हर चीज़ मम्मी से मांगने की आदत है...हां चाय शायद ज़रूर बना लेंगे। सुमेधा सोचते सोचते हंसने लगती है।

राखी की रस्म हो गई है। काफी देर से हंसी ठहाकों का सिलसिला चल रहा है। पूरी तरह से फील गुड फैक्टर वाला माहौल है। नाश्ता भी लगभग हो ही चुका है। गर्मागर्म आलू के परांठे, घर का बना सफेद मक्खन और दही। अब गर्मागर्म मसालेदार चाय की चुस्कियों के साथ ठहाकों का दौर चल रहा है। बचपन की बातें, लड़ाई झगड़े, बेवकूफियां...सब याद की जा रही हैं।

अब बस थोड़ी ही देर में स्वामीजी के आश्रम के लिए निकलना है। वहां से सत्संग के बाद सुमेधा मम्मी के साथ अपने घर चली जाएगी। शंभू ने गैरेज से कार निकाल दी है और अब उसे चमका रहा है। घर के सभी लोग तैयार हो निकलने की तैयारी कर रह हैं।

सत्संग के बाद मामाजी स्वामीजी के साथ रहेंगे और मामीजी फैक्ट्री चली जाएंगी, कुछ ज़रूरी काम निपटाने। सभी सत्संगघर के लिए निकल पड़े हैं। कार मामाजी ही ड्राइव कर रहे हैं। सुमेधा पीछे मम्मी के साथ बैठी है। मामीजी आगे हैं। सीडी प्लेयर पर स्वामीजी का सत्संग चल रहा है। सभी उसमें खोए हैं....

"मनुष्य अपने कर्मों से जाना जाता है। वो खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा। सारी माया यहीं रह जाएगी...इसलिए ऐ परमात्मा के बन्दे, पाप ना कर, कल किसने देखा है...मोहमाया त्याग दे।" सत्संग चल रहा है, सभ चुप हैं।

ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ी रुकी है। एक मैली कुचैली सी लड़की कार की ओर बढ़ रही है। बाल बुरी तरह उलझे हुए...छोटी सी फ्रॉक कई जगह से फटी हुई...हाथ में एक गंदा सा कपड़ा है जिसे वो कार पर फेरने लगी है।

"साले बहन..., सुबह सुबह जाते हैं।" मामाजी ज़ोर से बड़बड़ाने लगे हैं। लड़की उनके शीशे के बिलकुल पास आ गई है...हाथ फैलाए हुए...कुछ बोल भी रही है, पर कार के अंदर उसकी कमज़ोर आवाज़ सुनाई नहीं दे रही।

"साले हराम के पैदा करके छोड़ देते हैं सड़क पर....हमने क्या टक्साल लगाई हुई है...चल भाग यहां से...!" मामाजी बोलते जा रहे हैं...पर लड़की वहीं खड़ी हुई है....हाथ फैलाए...

सुमेधा का दिल कर रहा है उस बच्ची को कुछ देने का...पर मामाजी का गुस्सा देख हिम्मत नहीं हो रही। शरीर ही मानो जड़ हो गया है। ना मुंह से आवाज़ निकल रही है और ना शरीर हिल रहा है। अभी अगर पापा होते यहां तो मामाजी को ज़रूर टोकते और बेचारी सी बच्ची को ज़रूर कुछ देते। पर ज्यादा धक्का तो इस बात है कि मामाजी बोल रहे हैं ये सब..! उसके सोफिस्टिकेटेड मामाजी...!

सिग्नल अभी तक लाल ही है। अब तो लड़की हाथ फैलाए गिड़गिड़ा रही है। कार के शीशे से हाथ नहीं हटाया है अभी तक।

"सालों हरामज़ादों...! समझ नहीं आ रही क्या..." मामाजी ने कार का शीशा नीचे किया है।

"ओए तुझे समझ नहीं आ रही क्या...नहीं देना कुछ भी हमने...भाग जा...पता नहीं कहां से आ जाते हैं साले...कार का शीशा खराब करके रख दिया !" मामाजी ने लड़की को ज़ोर से धक्का दिया है। वो बीच सड़क पर गिरते गिरते संभल गई है और दूसरी कार की ओर बढ़ने लगी है।

सिग्नल हरा हो गया है। "बेवकूफ ने सारा शीशा खराब कर दिया...हाथ के निशान पड़ गए हैं...बेवकूफ लड़की..." मामाजी कार आगे बढ़ाते हुए गुस्से में बड़बड़ाते जा रहे हैं। मामीजी चुप हैं। शायद अपने पति की बातों को मौन सहमति दे रही हैं। मम्मी भी चुप हैं। पता नहीं उनके मन में क्या चल रहा है। सुमेधा भी चुप है। पर उसकी तो मानो ज़ुबान ही बेजुबान हो गई है। हर बात पर बढ़ चढ़कर बोलने वाली सुमेधा भी आज चुप है। सीडी प्लेयर पर स्वामीजी कहते जा रहे हैं,"बंदे, ये दुनिया तो बस एक छलावा है....तू ध्यान कर...इस मोहमाया की दुनिया से बाहर निकल....तू खाली हाथ आया है, खाली हाथ ही जाएगा..."

Monday 18 June, 2007

चल पड़ा सूरज

सिमटते से बादलों के पीछे,
टूटा टूटा सा वो सूरज
अपनी सुनहरी चादर समेटता,
रंग बदलती सुनहरी चादर,
लाल, संतरी, स्लेटी गुलाबी
लहराती चादर को
हौले हौले खींचता, समेटता बढ़ चला।

सिमटते से बादलों के पीछे
टटा टूटा सा वो सूरज,
झुके झुके से आसमां को लांघता,
तहरों की आगोश में समाने,
उनकी अथाह गहराई को पाटकर
फिर उस पार की दुनिया को जगाने
हौले हौले चल पड़ा।

Sunday 10 June, 2007

बड़े मियां दीवाने...

जब मैं होउंगा साठ साल का और तुम होगी पचपन की, बोलो प्रीत निभाओगी ना तब भी अपने बचपन की...ना जाने कितने ही पति पत्नी और प्यार की पींगे बढ़ाते प्रेमी जोड़े ये गाना गुनगुनाते हुए सुनसान पार्कों के चक्कर लगा चुके हैं...पर जनाब अब इस बात की कोई गारंटी नहीं कि जब आप साठ साल के होंगे तो आपकी हमसफर भी अपने पचपनवें बसंत को पार कर चुकी हैं...हो सकता है कि वो अपनी ज़िंदगी के तीसवें साल की दहलीज़ पर ही खड़ी हों...जी हां...वक्त बदल रहा है और इसके साथ ही बदल रहे हैं प्यार और रिश्तों के फॉर्मूले।

अब हाल की फिल्मों को ही देख लीजिए। फिल्म जॉगर्स पार्क में अधेड़ जज बने अभिनेता विक्टर बैनर्जी बिंदास मॉडल पेरिज़ाद ज़ोराबियन के प्रेम में पड़े दिखे...और तो और, बुढ़ापे में इश्क फरमाने का रोग हमारे बिग बी, यानि की अमिताभ बच्चन को भी लगा। जहां एक ओर फिल्म निशब्द में वो सोलह साल की जिया खान से प्यार के दांव पेंच सीखते नज़र आए वहीं दूसरी ओर फिल्म चीनी कम में उन्हें अपने से कहीं छोटी तब्बू के इश्क में गिरफ्तार होने का मौका मिला।

ऐसा नहीं है कि इन फिल्मों को लेकर हमारे यहां सवाल नहीं उठे..बिलकुल उठे...पर आमतौर पर इन फिल्मों के प्रति लोगों का रवैया काफी हल्का फुल्का ही रहा। बल्कि एक अलग थीम पर फिल्म बनाने के लिए इन फिल्म के निर्माताओं की तारीफ ही हुई। कहा गया कि आखिर फिल्में भी तो समाज का ही आईना है।

जी हां, रील रोमांस से परे अगर रियल रोमांस की बात करें तो यहां भी ऐसे जोड़े मिल जाएंगे जो प्यार में उम्र के तय पैमानों से बाहर निकल अपने ही नए पैमाने गढ़ रहे हैं। अब अपने प्रोफेसर मटुकनाथ को ही लीजिए। ज़माने भर की लाख ठोकरें मिलीं, पत्नी ने सरेआम इज़्जत तार तार करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, पर ये महाशय तो अपनी खूबसूरत शिष्या जूली के प्यार में कुछ ऐसे खोए कि दीन दुनिया के तानों की कुछ सुध ही ना रही। भई इश्क हो तो ऐसा ! अब तो आलम ये है कि इश्क विश्क के मामले में जब भी कोई भागम भागी का केस सामने आता है तो टीवी वाले तुरंत उनको अपने स्टूडियो आने का न्यौता भेज डालते हैं....उनके एक्सपर्ट् कमेंट्स जानने के लिए।

यानि कि जनाब समाज के एक बड़े हिस्से ने भी मान लिया है कि अब प्यार इश्क और मौहब्बत में मैं सोलह बरस की और तू सतरह बरस का वाला फॉर्मूला पुराना हो चुका। तो मॉरल ऑफ दी स्टोरी साफ है जनाब...अब तो उम्र का को दौर हो, प्यार हो गया हो तो बिंदास बोल डालिए...फिर चाहे आपकी उम्र सतरह की हो या सतत्तर की, प्यार के मामले में उम्र का कोई कॉपीराइट नहीं !

Friday 8 June, 2007

रिक्शेवाला

"चलोगे भईया...?"
"हां जी, चलेंगे...बताईये, कहां चलना है?" "कृष्णा अपरा, शॉप्रिक्स मॉल के पीछे ही है...सेक्टर 61।"
"कृष्णा मॉल...हां, हां..चलेंगे।"
"अरे कृष्णा मॉल नहीं भईया...कृष्णा अपरा अपार्टमेंट्स जाना है...सेक्टर 61।"
"अरे हां हां...जानते हैं, जानते हैं...चलिए..."
"अच्छा कितने पैसे लोगे..?"
"आप ही बता दीजिए मैडमजी...क्या देंगी..."

"देखिए भईया...हमें तो खुद नहीं पता...पास ही है यहां से...बीस ले लीजिएगा..."
"चलिए बीस में पांच और दे दीजिए...बीस तो कम है.."
"नहीं भईया...हमें अंदाज़ा नहीं है जगह का...पर यहां से पास ही है। बीस बिलकुल सही है। क्यों ठीक है ना पूर्वा...?"
"हां हां भईया...चलिए...दस मिनट का तो रास्ता है।"
"चलिए हमें भी पता नहीं है...पर अब आप कहती हैं तो बीस में ही ले चलेंगे..."

भीड़ भरी सड़क में रिक्शे वाला अपने लिए भी जगह बनाता हुआ चलने लगता है। धुएं से भरी सड़क...सरकारी बसें...खचाखच भरी हुईं प्राइवेट बसें.....स्कूटर, साइकिल,ट्रक...कारें...गाय, सांड़, कुत्ते, भिखारी...खोमचे वाले...और फिर कारें...कारें...और कारें...

"अरे भईया...ये किधर ले जा रहे हो आप...शायद इधर से नहीं है रास्ता..."
"मैडमजी, कृष्णा मॉल जाना है ना आपको...?"
"हे भगवान भईया ! आपको बताया ना...कृष्णा अपरा, सेक्टर 61, नोएडा।"
"नोएडा...? तो पहले बताना था ना...ये तो हम उल्टा ले आए..." रिक्शेवाला अपनी खटारा रिक्शा मोड़ने लगता है।

"नोएडा तो उस तरफ है...चलिए कोई बात नहीं...अभी लिए चलते हैं। पर मैडमजी बहुत दूर है यहां से...पच्चीस में तो नहीं होगा।"
"अरे भईया....आप चलिए तो...रास्ता तो आपको मालूम नहीं है...पैसे को लेकर किचकिच करने में लगे हो..."
"अरे कैसे नहीं मालूम मैडमजी...ये देखिए...ये सड़क पकड़ लिए तो सीधे अलीगढ़... और वो देख रहे हैं...वो सामने लाल बत्ती पार करके दाएं उतरे तो वो आ जाएगा नोएडा...खूब जानते हैं हम...."
"हे भगवान, ये कहीं अलीगढ़ ही ना पहुंचा दे....," सुमेधा धीरे से चुटकी लेती है।

रिक्शेवाला चलता जा रहा है...कमज़ोर बदन पर गंदा सा कुर्ता औऱ फटी लुंगी...बालों को तो मानो अर्सा हुआ साबुन, कैंची औऱ कंघी के दर्शन हुए। बुढ़ों के रिक्शों पर चढ़ना भी एक मुसीबत है...एक तो एक इंसान का दूसरे इंसान को खींचना ही अपने आप में इंसानियत से परे की बात लगती है...हां बस शायद लगती ही है। पर एक बूढ़े के रिक्शे पर चढ़ने से आप कतराते हैं। आत्मा कचोटती है...एक बूढ़ा खींचेगा दो जवान जहान लोगों को...फिर लगता है चलो बेचारे की दो पैसे की कमाई ही हो जाएगी। पर अजीब से कशमकश से घिर जाता है दिल....

"पूर्वा...टाईम पास करूं क्या ? बड़ा मज़ा आएगा...बस अभी देखते रहना..." सुमेधा ने पूर्वा को हल्के से आंख मारी है...दोनों के चेहरों पर शरारती मुस्कान खिल गई है।

"कहां के हो भईया आप...?"
"बिहार के हैं मैडमजी।"
"अच्छा, बिहार में कहां ?"
"अरे आप क्या जानिएगा मैडमजी..." रिक्शेवाला ऐसे कहता है मानो रिक्शे पर बैठी दोनों लड़कियों का बिहार के शहरों के बारे में पता होना कितने हैरत की बात हो....

"अरे आप बताईये तो, हम सब जानते हैं।"
"हम बेगूसराय के हैं मैडमजी।"
"अच्छा...हम भी बिहार के ही हैं।" सुमेधा ने पूर्वा को हल्की सी कुहनी मारी है।
"अच्छा...कौन जील्ला के मैडमजी..."
"बोल भागलपुर...," पूर्वा हल्के से सूझाती है। "पटना बोलूं क्या ?"
"अरे भागलपुर बोल ना...," पूर्वा फिर दोहराती है।
"कौन जील्ला मैडमजी...?" रिक्शेवाला फिर से पूछ रहा है।

"भागलपुर...भागलपुर के हैं हम...सुना है आपने...?"
"अरे बेगूसराय के हम...सब जानते हैं। हमरी उमर बताईये कितनी होगी....?"
रिक्शेवाले के चेहरे पर गर्व के भाव हैं। मानो जिंदगी के कितने ही बड़े बड़े कारनामों को अंजाम दे दिया हो।

"ये लो....हमें क्या लेना तेरी उमर से...यार ये तो कुछ ज्यादा ही फ्रेंडली हो रहा है।"
सुमेधा पूर्वा के कान में फुसफुसाती है। "चल कम ही बताना ठीक रहेगा...खुश हो जाएगा बुढ्ढा...
"भईया...होगी यही कोई 40-42...," रिक्शे पर पीछे बैठे, दोनों के चेहरों पर फर वही शराररती मुस्कान खेल रही है।
"तिरसठ के हो गए हैं हम...," अबकी बार वो पलटकर दोनों को देखता है...चेहरे पर
फिर वही गर्व का भाव... "बीस साल हो गए दिल्ली में..."
"अच्छा...और आपका परिवार ?"
"सब बेगूसराय में है।"

"अच्छा भईया, कितने बच्चे हैं आपके ?" अब पूर्वा की भी दिलचस्पी बढ़ने लगी है।
"हमरे आठ बच्चे हैं मैडमजी....", रिक्शेवाला बोलता जा रहा है।
"आठ बच्चे! हे भगवान... कहीं मुसलमान तो नहीं?" सुमेधा पूर्वा की ओर मुंह करती है।
"चार लड़कियां हैं,दो की शादी कर दी है। एक लड़का मैट्रिक में है...." चेहरे पर फिर वही गर्व का भाव है। छाती फूली हुई है, कुछ थकावट से तो कुछ गर्व से...

"अच्छा..." दोनों की दिलचस्पी धीरे धीरे घटने लगी है...और कितनी दूर है ये शॉप्रिक्स मॉल...कितनी देर हो गई है रिक्शे पर बैठे बैठे...

"भईया, आप किसी से पूछ लीजिए रास्ता..."
"हां मैडमजी, बस अगली लाल बत्ती पर पूछते हैं। वहां से नोएडा शुरु हो जाएगा।"
"तो भईया, कितनी देर बाद घर जाते हो आप ?
"बेगूसराय...? छह महीने साल में चले ही जाते हैं...रिक्शे पर ही जाते हैं।"
"क्या...?" दोनों को मानो सुनने में कोई गल्ती हुई है। "क्या कहा भईया आपने ?"
"हां, रिक्शे पर ही निकल जाते हैं। बस थाने से मोहर लगवाना पड़ता है।"
"हे भगवान, भईया...दिल्ली से बिहार...रिक्शे पर...!"
"हां मैडमजी, बस छह रोज़ तो लगते हैं। रोज दो सौ किलीमीटर रिक्सा टान लेते हैं।"
दोनों को अभी तक यकीन नहीं हो रहा...ये कमज़ोर सा रिक्शे वाला...रिक्शे पर बिहार...बाप रे...

"आपको रास्ता मालूम है ?"
"हां ना...नक्सा है हमरे पास...दिल्ली से गाज़ियबाद, लखनऊ होते हुए आरा.....बस पहुंच गए घर..."
"अच्छा, फिर वापस भी रिक्शे पर आते हैं...?"
"नहीं, नहीं...वापिस तो ट्रेन पर आते हैं। रिक्सा वहीं किराए पर दे देते हैं। छह बार जा चुके हैं हम रिक्सा पर घर..."वो जेब से मैली कुचैली सी डायरी निकाल रहा है...पन्ना पन्ना जैसे लग हो रहा है डायरी का...

"ये देखिए, हमारा नाम पता सब लिखा है डायरी में..."
पहले ही पन्ने पर साफ सुथरी लिखावट में लिखा है...मौहम्मद वकील, गांव फ्लां फ्लां, बेगूसराय।

"देखा ना, मुसलमान ही है, आठ बच्चे हैं। हे भगवान...," पूर्वा सुमेधा के कान में फुसफुसाती है।
"भईया, आप रास्ता एक बार फिर पूछ लीजिए...आधा घंटा हो गया रिक्शे पर बैठे। हमें पता होता कि इतनी दूर है तो ऑटो ही कर लेते...आपको भी परेशान कर दिया।"
"नहीं, नहीं मैडमजी...परेशानी की कौनो बात नहीं है।" वो किसी दूसरे रिक्शे वाले से रास्ता पूछ रहा है। आगे चौराहे से दाएं हाथ और फिर सीधा...ठीक है...आधे घंटे से रिक्शे पर बैठे बैठे थकावट हो गई है।

"तो गांव में बच्चे भी रिक्शा चलाते हैं क्या ?"
"नहीं, नहीं...," वो आंखें तरेरता हुआ पीछे देखता है।
"आप भी क्या बात करती हैं, मैडमजी। छोटा बेटा मेट्रिक में है और बड़ा बेटा कारी की पढ़ाई कर रहा है...वो जो मस्जिद में लिखा पढ़ी करते हैं ना...बस दो साल की पढ़ाई और है।"
"हां...फिर तो जैसे डीसी लग जाएगा...।" एक बार फिर सुमेधा ने चुटली ली है।
"बहुत लायक है लड़का पढ़ने में...", रिक्शेवाला बोलता जा रहा है।
"अच्छा...तो वो भी दिल्ली आता रहता होगा....उसके लिए तो उच्छा है, पढ़ाई के बाद यहीं काम मिल जाएगा...."
"नहीं...वो कभी नहीं आया दिल्ली।" बात खत्म। रिक्शे में चुप्पी छा गई है। नोएडा शुरु हो गया है। पर सेक्टर 61 अभी काफी आगे है। हे भगवान...कहां फंस गए...वो दोनों तो बस परफेक्ट मॉल घूमने आए थे। फिर सोचा कि चलो अनुराधा के घर भी घूम आया जाए। पता होता कि सेक्टर 61 इतनी दूर है तो आराम से ऑटो में ही चले जाते...
"अच्छा, तो भईया...यहां कहां रहते हो आप ?"
"कहीं नहीं...यहीं सड़क पर..."
"सड़क पर मतलब ?"
"दिन भर रिक्सा टानते हैं। एक रिस्तेदार का दुकान है, वहीं सो जाते हैं रात में।"
"पर फिर भी, कोई घर या कमरा नहीं है क्या ?"
"कौनो ज़रूरत है मैडमजी ? रात में सोने का तो होईये जाता है।"
"पर फिर भी चिट्ठी पत्री कहां आती है आपकी ?"

रिक्शेवाला हंसता है...." क्या चिट्ठी पत्री मैडमजी...बीस साल से कोई पता नहीं दिया कभी...और दूंगा भी नहीं। कोई आएगा भी नहीं।"
"हे भगवान, पर क्यों ? अकेले रहते हैं...कभी बिमार पड़ गए या फिर कोई ज़रूरत पड़ गई तो परिवार वालों के पास पता तो होना ही चाहिए....।"
सुमेधा ने कहने को तो ये कह दिया, लेकिन उसके मन में तो कुछ और ही चल रहा था। हे भगवान, बुड्ढा सड़क पर रहता है चौबीस घंटे...भगवान ना करे कभी एक्सिडेंट हो गया, या फिर ठंड लग गई या फिर लू लग गई, तो कौन पूछेगा। मर-मरा गया तो कॉरपोरेशन वाले लावारिस लाश समझकर जला देंगे। परिवार को पता भी नहीं चलेगा।

"पर भईया, ये तो कोई बात नहीं हुई...पता तो होना चाहिए ना परिवार के साथ। कभी आकर मिल तो सकते है ना आपसे...।"
"आकर क्या देखेंगे...कि बाप रिक्सा चलाता है ? मैडमजी, गांव में बताया नहीं है किसी को कि हम शहर में रिक्सा चलाते हैं। छोटा बेटा मेट्रिक में है, बड़ा बेटा कारी बनेगा। कैसा लगेगा...क्या बोलेंगे...कि हमारा बाप रिक्सा चलाता है।"

रिक्शे पर बैठे बैठे दोनों चुप हैं। कुछ सूझ ही नहीं रहा कि क्या कहें।

"अच्छा तो फिर घर पर क्या कहा है?"
"घर पर बोले हैं कि छोटा मोटा काम कर लेते हैं। और नहीं तो सब्जी मंडी में एक दुकान पर काम कर लेते हैं।"

सवालों और दिलचस्पी का सिलसिला फिर चल निकला है।

"अच्छा, फिर जब आप रिक्शे पर घर जाते हैं, तो घरवाले पूछते नहीं कि रिक्शा कहां से आया...?"
"अरे नहीं मैडमजी, कह देते हैं कि आ रहे थे...पैसा था, तो कीन के लेते आए..."

दोनों को अब शर्मिंदगी सी महसूस होने लगी है। वो तो रिक्शे पर बैठे बैठे ही थक गईं थीं...उन्हें खींचने वाले का क्या हाल हो रहा होगा। अब लग रहा था कि कार कि खिड़की से सबकुछ कितना आसान लगता है। ज़िंदगी कितनी सफाई से नज़रों के सामने से गुजरती
दिखती थी। एयरकंडिशन्ड कार के अंदर बैठे बैठे कितना आसान था ज़िंदगी को हल्के तौर पर लेना।

"पर भईया...आप ऐसा क्यों सोचते हैं। रिक्शा चलाते हैं....काम ही करते हैं ना। भीख तो नहीं मानते, किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाते...चोरी तो नहीं करते... काम कि तो इज़्जत है ना। मेहनत करके कमाते खाते हैं।"

सुमेधा मानो शब्दों के सहारे उसे विश्वास दिलाना चाह रही थी कि वो अभी भी कई लोगों से काफी बेहतर है। इतने सालों से अंदर ही अंदर कचोट रही रिक्शे वाले की अपने काम के प्रति शर्मिंदगी को वो अपने शब्दों से धोने की कोशिश कर रही थी। आज तक ना जाने कितने रिक्शे वालों को दुत्कारा था उसने। बुरी तरह डांटा था, कम पैसे दिए थे और खूब खरी खोटी सुनाई थी....

"मेहनत की तो बात ठीक है मैडमजी...पर आप नहीं समझेंगे...चलाते तो रिक्सा ही हैं ना..."
बातों का सिलसिला फिर चल पड़ा है। अब कृष्णा अपरा की कोई सुध नहीं थी...

"अच्छा भईया, आप दिल्ली से पहले कहां थे?"
"दुर्गापुर में थे मैडमजी। बेकरी थी हमरा छोटा सा...पैराडाईज़..."
"क्या था ?"
"पैराडाईज़ नाम था बेकरी का..."
"अच्छा बेकरी...। तो फिर दिल्ली क्यों आ गए... बेकरी तो खूब चलती है। ब्रेड बेचते...बिस्कुट बेचते...," पूर्वा माहौल हल्का करने के लिए कहती है।
"वो जोती बसू का सरकार आ गया था ना...यूनियन लग गया था। बोला कि मजदूर को इतना पैसा दो...कहां से देते...बंद कर दीए। हमरे साथ पंद्रह लोग और थे। सब दिल्ली आ गए।"

दुनिया के कितने सच देखे हैं आज...पहले रिक्शेवालों का सच, अब ये कम्यूनिज़म, गरीबी हटाओ...कितने झूठे हैं नारे...इस रिक्शेवाले जैसे ना जाने कितने ही छोटे मोटे काम धंधे वाले हैं...जो अपनी रोजी रोटी बदलने को मजबूर होते हैं रोज़ दर रोज़...ना जाने इस रिक्शेवाले जैसे कितने अपना घर बार छोड़ सड़कों पर धक्के खाने को मजबूर हो गए होंगे। जो दिन भर काम करते होंगे और रात को फुटपाथ पर सोते होंगे। जिनके बीवी बच्चे...सारा परिवार दूर किसी गांव में रहते होंगे। ऐसा परिवार जिनको उन्होंने अपना पता तक नहीं दिया होगा। कृष्णा अपरा आ गया था....

"बस भईया, आ गया...वो सामने ही है बिल्डिंग...वो देखिए लिखा है बोर्ड पर..."
"हां, चलिए मैडमजी, पहुंच ही गए बात बात में..."
सुमेधा का दिल भारी सा हो रहा है। "भईया, कभी लगता नहीं कि परिवार को कहां अकेला छोड़ दिया है ?"
"मैडमजी, अकेले तो हम हैं। अन्जान से शहर में। कोई भी तो अपना नहीं यहां। वो लोग अकेले कहां ? गांव में तो सब हैं, पूरा परिवार है। बीवी के साथ बच्चे हैं। अल्ला का करम है। उसका दिया सब कुछ है। भरा पूरा घर है....कौनो चीज़ की कमी नहीं...टीवी, पंखा, लाइट...अनाज....थोड़ी बहुत खेती का काम भी है। छोटा बेटा मेट्रिक में है। दो बेटियों की शादी कर दी है। बाकि दोनों के नाम पर थोड़ा पैसा जोड़ा हुआ है। और बड़ा बेटा तो कारी बन ही जाएगा।"

"चलिए, फिर वो कमाएगा और आप आराम करिएगा...", पूर्वा उतरते हुए कहती है
"हां, फिर आप भी गांव चले जाइयेगा....", जाने अब क्यूं दोनों का उतरने का मन नहीं कर रहा है। सुमेधा ने रिक्शेवाले को पैसे पकड़ाए हैं....
"देखिए मैडमजी, आगे का होता है। अल्ला का करम रहा तो थोड़ा आराम हम भी कर लेंगे...बहुत रिक्सा खींचे हैं।" कहता हुआ वो नई सवारी की तलाश में आगे बढ़ जाता है।