चौक से चलकर, मंडी से, बाज़ार से होकर
लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती
बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती
शहर की आवारा गलियों में सहमी-सहमी सी पूछ रही है
हर कश्ती का साहिल होता है तो -
मेरा भी क्या साहिल होगा ?
एक मासूम से बच्चे ने
बेमानी को मानी देकर
रद्दी के कागज़ पर कैसा ज़ुल्म ढाया किया है।
- गुलज़ार
Wednesday 4 June, 2008
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